धर्मेन्द्र पैगवार
भोपाल। प्रदेश के राजनीतिक इतिहास में 2023 का विधानसभा चुनाव और राजनीतिक दल बदल के अलावा नेताओं और दलों में गिरते नैतिक पतन के लिए याद रखा जाएगा। प्रदेश के दोनों प्रमुख दल भाजपा और कांग्रेस में कई ऐसे नेता रहे हैं जिन्होंने विचारधारा के लिए कितने ही कष्ट झेले हो लेकिन उन्होंने अपने दल के प्रति निष्ठा को नहीं छोड़ा है। इस बार ऐसा नहीं है। प्रदेश की 50 से ज्यादा विधानसभा सीटों पर तो हालत यह है की आम मतदाता को चुनाव प्रचार होने के 10 दिन बाद तक यह समझना पड़ेगा कि उसका उम्मीदवार किस दल का है या उसकी राजनीतिक विचारधारा क्या है? जिन्होंने जीवन भर भाजपा के लिए संघर्ष किया वह कांग्रेस की टिकट पर चुनाव लड़ते नजर आ रहे हैं और जो पुराने कांग्रेसी हैं कोई हाथी की सवारी कर रहा है तो किसी के हाथ में कमल का फूल है। सत्ता की चाहत और टिकट पाने की होड़ में लोगों ने अपनी निष्ठाएं खूंटी पर टांग दी हैं।
मार्च 2020 में थोक में हुआ दल बदल अब प्रदेश की राजनीतिक आदत बन गया है। जैसे क्राइम की दुनिया में आदतन अपराधी होते हैं ऐसे ही आदतन दल बदलू राजनेता होने लगे हैं। विंध्य क्षेत्र से आने वाले नारायण त्रिपाठी और अभय मिश्रा इसके जीवंत उदाहरण है। समाजवादी पार्टी से विधायक बने त्रिपाठी कांग्रेस में शामिल हो गए थे और 2014 लोकसभा चुनाव के दौरान जब वोट पड़ने वाले थे तो ठीक दो दिन पहले उन्होंने पलटी मार दी थी। अचानक वह भाजपा में आए और उपचुनाव में भाजपा से विधायक बन गए। 2018 में भाजपा से विधायक बने और बीच विधानसभा सत्र में उन्होंने फिर रंग दिखाए न केवल सदन के अंदर बल्कि सदन से बाहर आकर पूरे भाजपा नेतृत्व पर कई सवाल उठाएं। अपनी स्थापना काल से अभी तक सत्ता को लक्ष्य प्राप्ति का साधन नहीं मानने वाली भाजपा के तमाम नेता उनके इस आचरण पर चुप रहे। त्रिपाठी के साथ सदन में भाजपा की मुखालफत करने वाले शरद कॉल तो फिर से टिकट पा गए हैं। जब भाजपा सरकार बनी तो त्रिपाठी मंत्री बनने के लिए छटपटाते रहे तब तक उनका नाम हनी ट्रैप में आ चुका था। लेकिन चरित्र निर्माण की बात करने वाले उनके संगठन ने विधायकों की संख्या का लिहाज करते हुए मुंह पर टेप लगाए रखा। 2023 के चुनाव के पहले त्रिपाठी ने भाजपा से इस्तीफा दिया कांग्रेस की तारीफ की। लेकिन जब कांग्रेस में उनकी बात नहीं बनी तो वह वापस अपने स्वयंभू दल से लड़ने की बात कहने लगे। मैहर में उनके खिलाफ पिछला चुनाव कांग्रेस से लड़ने वाले उम्मीदवार बीजेपी से चुनाव लड़ रहे हैं। 
पैदाइशी कांग्रेसी अभय मिश्रा को भाजपा 2008 के चुनाव के पहले अपने दल में ले आई थी। आपातकाल के समय से चने खाकर जनसंघ और भाजपा का काम करने वाले लोग अभी पकोड़े तल रहे हैं और अभय मिश्रा को भाजपा ने 2008 में और उसके बाद उनकी पत्नी नीलम मिश्रा को 2013 में विधायक बनने का अवसर दिया। 2018 में अभय मिश्रा रीवा में राजेंद्र शुक्ल के खिलाफ कांग्रेस के उम्मीदवार बन गए चुनाव हारे तो पूरे 5 साल भाजपा की मुखाल्पत की। एक महीने पहले भाजपा में मुख्यमंत्री के तमाम विरोधी मिश्रा को भाजपा में ले आए। जब टिकट की बात नहीं बनी तो मिश्रा ने यू टर्न ले लिया और जिन मुख्यमंत्री की गैर मौजूदगी में उन्होंने भाजपा ज्वाइन की थी। उन्हीं पर वादा खिलाफी का आरोप लगाते हुए वे कांग्रेस में शामिल हो गए। तमाम सर्वे और कार्यकर्ताओं को मौका देने की बात करने वाली कांग्रेस ने उन्हें फिर से सिमरिया से उम्मीदवार बना दिया है।
त्रिपाठी और मिश्रा को मौजूदा राजनीतिक हालातो में हांडी के एक चावल की तरह देखा जाना चाहिए। मौजूदा राजनीतिक दृश्य से पूरी हांडी भरी हुई है। 
प्रदेश का मतदाता चुप है। राजनीतिक विचार, ईमानदारी, पार्टी के कार्यक्रम लोगों के प्रति वफादारी यह सब गौण हो गया है। सीट जीतने की भूख और सत्ता की हवस ने सेवा के लिए राजनीति करने की बातों को पीछे छोड़ दिया है। विंध्य से लेकर मालवा तक एक जैसे हालात हैं। नरसिंहपुर जिले के गाडरवारा में सालों तक कमल खिलता रहा है। अर्जुन सिंह और श्याम चरण शुक्ल तक के दौर में। विधानसभा का शेर कहे जाने वाले नगीन कोचर वहां भाजपा से जीत कर आते थे। विधानसभा में ज्यादा मुखर कोचर पर भाजपा के तत्कालीन मुखिया सुंदरलाल पटवा की नजर ऐसी टेढ़ी हुई कि उन्होंने कोचर का टिकट काट दिया। 2003 से भारतीय जनता पार्टी तीन चुनाव 2013 तक गोविंद पटेल को चुनाव लड़ाती रही। 2008 में वह चुनाव हार गए तब भी उन्हें 2013 में उतारा गया। 2018 के चुनाव में भाजपा ने उनके बेटे गौतम पटेल को मैदान में उतार दिया वह चुनाव हार गए लेकिन उन्हें इस बार फिर टिकट चाहिए था। भाजपा ने सांसद राव उदय प्रताप सिंह को टिकट दिया तो गौतम पटेल कांग्रेस में शामिल हो गए। 20 साल तक भाजपा पिता पुत्र को टिकट देती रही इन 20 सालों में भाजपा के जमीनी कार्यकर्ताओं की दो पीढ़ियां घर बैठ गई। लेकिन चार चुनाव से इस परिवार को उपकृत करने वाले किसी नेता में इतना नैतिक साहस नहीं था कि वह उन्हें कांग्रेस में जाने से रोक सके।
रीवा जिले के त्यौंथर में भी ऐसा ही कारनामा हुआ है। पूरी भाजपा पिछले 50 साल से श्रीनिवास तिवारी और सुंदरलाल तिवारी से संघर्ष करती रही। तिवारी का पोता सिद्धार्थ तिवारी 10 दिन पहले भाजपा में आया और त्यौंथर से भाजपा का उम्मीदवार बन गया। भिंड में दो बार सपा और बसपा से लड़ने वाले नरेंद्र कुशवाहा अब भाजपा उम्मीदवार है। 2020 में एक मुश्त कांग्रेस से आए 29 में से लगभग दो दर्जन कांग्रेसी भाजपा के टिकट पर लड़ रहे हैं। मध्य प्रदेश में जन संघ और भाजपा को खड़ा करने वाले कैलाश जोशी के बेटे कांग्रेस में है। जीवन भर सरकारी नौकरी करने वाले रुस्तम सिंह को भाजपा ने कार्यकर्ताओं को नजर अंदाज करके मुरैना से विधायक बनाया। तीन बार मौका दिया मंत्री भी बनाया जब वह चुनाव हार गए तो दूसरे को टिकट दिया, लेकिन उन्हें बेटे का भी टिकट चाहिए था। अब बेटा बहुजन समाज पार्टी में जाकर हाथी की सवारी कर रहा है। 
मोदी को निशाने पर लेने वाले  शर्मा के भाई को भी टिकट
दिवंगत हो चुके लक्ष्मीकांत शर्मा, शिवराज सरकार में लगातार मंत्री रहे। खनिज विभाग से लेकर व्यापम में हुए तमाम घटाने के कारण वे बदनाम हुए। जेल भी गए 2020 में हनी ट्रैप में नाम भी आया उनके ऑडियो वायरल हुई जिसमें वह मौजूदा दौर में भाजपा के सब कुछ माने जाने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लेकर निजी टिप्पणियां कर रहे हैं। भाजपा ने प्रदेश में सिरोंज सीट से उनके छोटे भाई को फिर से चुनाव लड़ने का मौका दिया है और उनके ही खास श्याम सुंदर शर्मा जिन्हें लक्ष्मीकांत शर्मा ने व्यापम कांड के बाद पार्टी और सरकार पर दबाव बनाकर जिला सहकारी बैंक का अध्यक्ष बनाया था, उनका नाम विदिशा सीट से चलाया जा रहा है। यह वह उदाहरण है जो प्रदेश की आम जनता को तो याद है, लेकिन राजनेता या तो भूल चुके हैं य भूलने का नाटक कर रहे हैं।

न्यूज़ सोर्स : bjp- candidate election madhya pradesh